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उपन्यास >> अधूरा सिंहासन

अधूरा सिंहासन

देवेन्द्र कुमार

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6394
आईएसबीएन :978-81-904825-6

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पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण पर आधारित बाल उपन्यास.....

Adhura Sinhasan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गुफा का रहस्य


मौसम सुहावना था, आकाश में हल्के बादल छाए थे, धीमी हवा बह रही थी। सड़क के दोनों ओर झाड़ियों पर नन्हें नीले और गुलाबी फूल मस्ती से झूम रहे थे। सँकरी सड़क पर एक बस चली जा रही थी। बस में बैठे छात्र मस्ती से गा रहे थे। कुछ पहले बस रुकी थी तो छाया, जूही और रचना ने झाड़ियों से फूलों के गुच्छे लेकर अपने बालों में सजा लिए थे।

बस में सेंट जॉन स्कूल के छात्र घूमने निकले थे। तीन दिन की छुट्टियाँ थीं। योजना थी कि तिराना की पहाड़ियों के बीच ‘रसधारा’ की फुहारों का आनन्द लेने के बाद जंगल में पिकनिक मनाई जाए। रात को छोटनपुर के डाक बँगले में रुकने का कार्यक्रम था। सैलानियों की टोली में बाइस छात्र-छात्राएँ और तीन अध्यापक थे। सड़क के किनारे कि.मी. के पत्थर पर लिखा था—रसधारा एक किलोमीटर। ‘रसधारा’ पहाड़ियों के शिखर से गिरने वाले झरने का नाम था। ‘‘बस, समझिए कि पहुँच ही गए।’’
ड्राइवर धनराज ने कहा और जोर से हार्न बजा दिया। दो हिरन झाड़ियों में से उछले और दूसरी तरफ कूदकर भाग गए। हवा में उछलते हिरनों को देखकर सब बच्चे तालियाँ बजाने लगे। ‘वण्डरफुल, वाह ! ओह !’ की आवाजों गूँजने लगीं। इतने में छाया ने उछलते हिरनों की छवि को अपने कैमरे में कैद कर लिया था।

‘‘धनराज, जल्दी करो।’’ विजयन ने कहा। वह अंग्रेजी के अध्यापक थे। ‘‘कहीं ऐसा न हो, हमें जंगल में ही रात हो जाए।’’ ‘‘अभी लीजिए सर।’’ धनराज ने कहा और बस की गति बढ़ा दी, लेकिन अगले ही पल न जाने क्या हुआ, एक बार जोर से भर्राकर बस रुक गई। धनराज कोशिश करता रहा, पर बस स्टार्ट नहीं हुई।
‘‘अब क्या हो गया !’’ अध्यापिका मिल पाल ने परेशान स्वर में कहा। वह देख रही थीं कि दोपहर ढल रही है। सूर्य पश्चिम की ओर ढुलक रहा था। हवा कुछ ठंडी हो गई थी।
धनराज बस को ठीक करने में लग गया। सभी छात्र-छात्राएँ और तीनों अध्यापक नीचे उतर आए। सड़क के एक ओर खड़ी पहाड़ियाँ थीं और दूसरी तरफ गहरी खाई। नीचे खाई में नीला कुहासा फैला था।

‘‘न जाने कितनी देर लगेगी।’’ विजयन ने परेशान स्वर में कहा और सड़क के किनारे एक पत्थर पर बैठ गए। बच्चे इधर-उधर फैल गए। कुछ चट्टानों पर चढ़ने लगे तो कुछ खाई की तस्वीरें उतारने लगे।

‘देखो-देखो इधर सामने।’’ जूही ने कहा तो सब उसी तरफ देखने लगे। सामने चट्टान में एक गुफा नज़र आ रही थी। गुफा का मुँह लाल चट्टान पर एक काले धब्बे जैसा दिखाई दे रहा था।
‘‘हमें चलकर देखना चाहिए कि गुफा में क्या है ?’’ रचना ने कहा। और वह गले में कैमरा लटकाए गुफा की तरफ बढ़ चली। गुफा कुछ ऊँचाई पर थी। झाड़ियों के बीच एक पथरीली पगडंडी गुफा की तरफ चली गई थी। पीछे-पीछे छाया और एड्विन चले तो बाकी बच्चे भी बढ़ चले। अब मिस पाल, विजयन और ड्राइंग टीचर जयमल को भी उनका साथ देना पड़ा। नीचे से कुछ पता नहीं चल रहा था। अब मालूम दिया कि गुफा काफी ऊँचाई पर थी। गुफा के बाहर एक चौरस स्थान था, जहाँ अनेक गोल पत्थर बिखरे हुए थे।
तभी विजयन ने झुककर उन पत्थरों के बीच से कुछ उठा लिया। वह ध्यान से देख रहे थे। उन्होंने कहा—‘‘अरे, यह तो हाथी दाँत का टुकड़ा है। यहाँ कैसे आ गया ? इस इलाके में तो हाथी होते नहीं।’’
‘‘हाथी यहाँ।’ कहकर मिस पाल ने गुफा की तरफ देखा, जैसे हाथी गुफा में हों।
‘नहीं, नहीं मिस पाल, ऐसी कोई बात नहीं, हाथी गुफा में नहीं घने जंगलों में होते हैं।’’ बिजयन ने कहा—‘‘तभी तो मैं सोच रहा हूँ कि हाथी दाँत यहाँ कहाँ से आया !’’
तभी छाया की आवाज़ आई—‘‘सर, यहाँ आइए, देखिए। यहाँ भी हाथी दाँत के कई टुकड़े पड़े हैं।’’ सब तेजी से उधर बढ़ गए। सचमुच वहाँ पत्थरों के बीच हाथी दाँत के एक नहीं कई टुकड़े पड़े थे।

विजयन के कहने पर बच्चों ने छाँटकर हाथी दाँत के टुकड़े अलग रख दिए। छोटे-बड़े कई टुकड़े थे। सभी टुकड़ों पर आरी से काटे जाने के निशान थे। देखकर सब हैरान रह गए। हाथी दाँत के इतने टुकड़े कौन लाया यहाँ ? वे लोग कौन थे, जिन्होंने आरियों से हाथी दाँत को काटा था ? देखने में हाथी दाँत पुराना मालूम देता था। यह एक विचित्र रहस्य था।

तब तक कुछ बच्चे दौड़कर अँधेरी गुफा में घुस गए थे। अन्दर से टार्च का प्रकाश दिखाई दे रहा था। बच्चों के उत्तेजित स्वर सुनाई दे रहे थे। फिर आवाज आई ‘‘सर, अन्दर आइए ! देखिए तो यह क्या है !’’ यह छाया की आवाज थी।
तीनों अध्यापक अन्दर चले गए। कई बच्चों के हाथों में टार्चें थीं। गुफा काफी गहरी थी और खूब ऊँची। तेज प्रकाश में अनेक चमगादड़ इधर से उधर उड़ते दिखाई दिए, फिर सामने दो बड़ी-बड़ी कुर्सियाँ रखी दिखाई दीं। 22 छात्र और तीनों अध्यापक आश्चर्य से अपलक ताकते रह गए। यह कैसा अजूबा था। जंगल के बीच एक गुफा के बाहर हाथी दाँत के बहुत-से टुकड़े दिखाई दिए थे और गुफा के अन्दर दो बड़ी-बड़ी कुर्सियाँ रखी थीं।
‘‘ये साधारण कुर्सियाँ नहीं हैं।’’ विजयन ने गुफा में रखी कुर्सियों को धीरे से छूकर कहा। ‘‘ये तो हाथी दाँत के सिंहासन हैं।’’
‘‘सिंहासन !’’ मिस पाल की आवाज गूँज उठी।
विजयन कर्नाटक के रहने वाले थे। उन्होंने जंगलों में कई बार हाथी देखे थे। वह हाथी दाँत को भी खूब पहचानते थे। टार्चों के उजले प्रकाश में वहाँ रखे हाथी दाँत के दोनों सिंहासन चमक उठे। उन पर धूल की परत जमी हुई थी। मकड़ियों ने जाले भी तान रखे थे। ऐसा लगता था जैसे दोनों सिंहासन बहुत समय से उस निर्जन गुफा में रखे हुए थे।
एक बड़ा आश्चर्य और था। एक सिंहासन पूरी तरह तैयार था। उस पर बैठने की जगह नीले रंग की मखमल की चौड़ी गद्दी पर जगह-जगह कई आकृतियाँ बनी हुई थीं। लेकिन उसके पास रखा दूसरा सिंहासन अधूरा था।

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